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वो औरत सामने जब-जब भी मेरे आज रोती है

मेरी रचनाएँ
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वो औरत सामने जब-जब भी मेरे आज रोती है
मुझे लगता है यूँ घर पर मेरी माँ साथ रोती है

भटकती जिंदगी उसकी है सड़कों पे चौराहों पे
कि हालत देख उसकी खुद ख़ुदा कि आँख रोती है

महज दो-चार रोटी के लिए दर-दर भटकती वो
हजारों रोटियाँ आती यहाँ जब रात होती है

न कोई पोछने वाला है आंसू उस अभागन का
उसी के ज़ख्म ही रातों को उसके ज़ख्म धोती है

सहारा है नहीं कोई सिवा उस नन्ही सी जाँ के
कि जिसके ज़िक्र से ही वो यहाँ बदनाम होती है

ना जाने क्यों नज़ारे देख कर खामोश रहते हम
हमारे ही ज़मीं पर औरतें सम्मान खोती हैं

शरीफों की ये महफ़िल है नसीहत बंद कर ‘कुंदन’
कि कुछ गुमनाम हस्ती भी यहाँ बदनाम होती है !!

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