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तेरी जफा से यहाँ कौन गिला करता है

मेरी रचनाएँ
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तेरी जफा से यहाँ कौन गिला करता है
इक तोहफा है ये अपनों से मिला करता है

ज़ख्म देकर के अपने, रहगुजर पे छोड़ गए
ग़ैर आकर कोई ज़ख्मों को सिला करता है

मेरी क़ज़ा कि तमन्ना में रोज़ जीता था
आज वो ही मेरे मरने की दुआ करता है

क्यों करूँ रंज अँधेरे में हो गया तनहा
अपना साया भी उजालों में मिला करता है

काश कि सारा ज़माना हो उसके क़दमों में
याँ हर कोई यही चाह किया करता है

यूँ तो आदत नहीं है दिल को चोट खाने की
फिर भी ये दिल मेरा,ग़मों से जिया करता है

ज़िन्दगी की ये हक़ीकत है समझ ले ‘कुन्दन’
भरोसा जिसपे हो अक्सर वो दगा करता है !

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